08-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन 

निश्चय रूपी आसन पर अचल स्थिति

हर परिस्थिति में अचल एवं अडोल बनाने वाले शिव बाबा बोले -

सभी अपने को निश्चय रूपी आसन पर स्थित अनुभव करते हो? निश्चय का आसन कभी हिलता तो नहीं है? किसी भी प्रकार की परिस्थिति या प्रकृति या कोई व्यक्ति निश्चय के आसन को कितना भी हिलाने का प्रयत्न करे, लेकिन वह हिला न सके - ऐसे अचल-अडोल आसन है? निश्चय के आसन में सदा अचल रहने वाला निश्चय-बुद्धि विजयन्ति गाया हुआ है। तो अचल रहने की निशानी है - हर संकल्प, बोल और कर्म में सदा विजयी। ऐसे विजयी रत्न स्वयं को अनुभव करते हो? किसी भी बात में हिलने वाले तो नहीं हो? जो समझते हैं कभी कोई बात में हलचल मच सकती है या कोई प्रकार का संकल्प भी उत्पन्न हो सकता है ऐसे पुरुषार्थी हाथ उठाओ? ऐसे कोई हैं जो समझते हों कि हाँ, हो सकता है? अगर हाथ न उठायेंगे तो पेपर बड़ा कड़ा आने वाला है, फिर क्या करेंगे? कोई भी मुश्किल पेपर आये उसमें सभी पास होने वाले हो तो पेपर की डेट अनाउन्स करें। सब ऐसे तैयार हो? फिर उस समय तो नहीं कहेंगे कि यह बात तो समझी नहीं थी और सोची नहीं थी, यह तो नई बात आ गई है? निश्चय की परीक्षा है कि जिन बातों को सम्भव समझते हो, वह असम्भव के रूप में पेपर बन के आयेंगी, फिर भी अचल रहोगे? 

निश्चय-बुद्धि बनने की मुख्य चार बातें हैं। चारों में परसेन्टेज फुल चाहिए। वह चार बातें जानते भी हो और उन पर चलते भी हो। पहली बात (1) बाप का निश्चय जो है, जैसा है, जिस स्वरूप से पार्ट बजा रहे हैं, उसको वैसा ही जानना और मानना। (2) बाप द्वारा प्राप्त हुई नॉलेज को अनुभव द्वारा स्पष्ट जानना और मानना। (3) स्वयं भी जो है, जैसा है अर्थात् अपने अलौकिक जन्म के श्रेष्ठ जीवन को व ऊंचे ब्राह्मण के जीवन को, अपने श्रेष्ठ पार्ट को, अपनी श्रेष्ठ स्थिति और स्थान का जैसा महत्व है, वैसा स्वयं का महत्व जानना, मानना और उसी प्रमाण चलना। (4) वर्तमान श्रेष्ठ, पुरूषोत्तम, कल्याणकारी, चढ़ती कला के समय को जानना और जान करके हर कदम उठाना। इन चारों ही बातों का पूर्ण निश्चय प्रैक्टिकल लाइफ में होना - इसको कहा जाता है - निश्चयबुद्धि विजयन्ति। 

चारों ही बातों में परसेन्टेज भी चाहिए। निश्चय है, सिर्फ इस बात में भी खुश नहीं होना है। लेकिन क्या परसेन्टेज भी ऊंची है? अगर परसेन्टेज एक बात में भी कम है तो निश्चय का आसन कोई भी समय अथवा कोई छोटी परिस्थिति भी डगमग कर सकती है। इसलिए परसेन्टेज को चेक करो क्योंकि अब सम्पन्न होने का समय समीप आ रहा है। तो छोटी-सी कमी समय पर बड़ा नुकसान कर सकती है क्योंकि जितना-जितना अति स्वच्छ, सतोप्रधान बन रहे हो, अति स्वच्छ स्टेज पर आज जो छोटी-सी कमी लगती है व साधारण दाग अनुभव होता है, वह बहुत बड़ा दिखाई देगा। इसलिए अभी से ऐसी सूक्ष्म चेकिंग करो और कमी को सम्पन्न करने का तीव्र पुरूषार्थ करो। दिन-प्रतिदिन जितना श्रेष्ठ बनते जा रहे हो उतना विश्व की हर आत्मा की निगाहों में प्रसिद्ध होते जा रहे हो। सबकी नजर आपकी तरफ बढ़ती जा रही हैं। अब सबके अन्दर यह इंतज़ार है कि कब स्थापना के निमित्त बने हुए ये लोग सुख-शान्तिमयी नई दुनिया की स्थापना का कार्य सम्पन्न करते हैं, जो यह दु:खदाई दुनिया के स्थापना के आधार पर परिवर्तित हो जायेगी। इन्हों की नजर स्थापना करने वालों में है और स्थापना करने वालों की नजर कहाँ है? अपने कार्यो में मग्न हो वा विनाशकारियों की तरफ नजर रखते हो? विनाश के साधनों के समाचारों को सुनने के आधार पर तो नहीं चल रहे हो? वह ढीले होते तो आप भी ढीले हो जाते हो? क्या स्थापना के आधार पर विनाश होता है या विनाश के आधार पर स्थापना होनी है? स्थापना करने वाले विनाश की ज्वाला प्रज्वलित करने के निमित्त बने हुए हैं न कि विनाश वाले स्थापना करने वालों के पुरूषार्थ की ज्वाला प्रज्वलित करने कि निमित्त हैं। 

स्थापना वाले आधारमूर्त हैं। ऐसे आधारमूर्त्त इसी विनाश की बात पर हिलते तो नहीं? हलचल में तो नहीं हो? होगा या नहीं होगा? लोग क्या कहेंगे या लोग क्या करेंगे? यह व्यर्थ संकल्प निश्चय के आसन को डगमग तो नहीं करता? सबने निश्चय-बुद्धि में हाथ उठाया ना? निश्चय अर्थात् किसी भी बात में क्यों, क्या और कैसे का संकल्प भी उत्पन्न न हो, क्योंकि संशय का रॉयल रूप संकल्प का रूप होता है। संशय नहीं है लेकिन संकल्प उठता है, तो वह संकल्प किसके वंश का अंश है? यह संशय का आया है या वंश का? जबकि चारों ही बातों में सम्पूर्ण निश्चय-बुद्धि हो तो फिर यह संकल्प उत्पन्न हो सकता है? जबकि है ही कल्याणकारी युग। 

कल्याणकारी बाप की श्रीमत पर चलने वाली आत्मायें सिवाय कल्याण के, चढ़ती कला के और कोई भी संकल्प कर नहीं सकती हैं। उनका हर संकल्प, हर कार्य के प्रति समय, वर्तमान का भविष्य के प्रति समर्थ संकल्प होगा, व्यर्थ नहीं होगा। घबराते तो नहीं हो? सामना करना पड़ेगा। पेपर का सामना अर्थात् आगे बढ़ना, अर्थात् सम्पूर्णता के अति समीप होना। अब यह पेपर आने वाला है। स्वयं स्पष्ट बुद्धि वाले होंगे तो औरों को भी स्पष्ट कर सकेंगे। इसका मतलब यह तो नहीं समझते हो कि होना नहीं है। ड्रामा में जो होता रहा है, समय-प्रति-समय, उसमें माखन से बाल ही निकलता है न? कोई मुश्किल हुआ है? बापदादा नयनों पर बिठाये, दिल तख्त पर बिठाये पार करते ले आ रहे हैं ना? कोई क्या अन्त तक साथ निभाने का या किसी भी परिस्थितियों से पार ले जाने का वायदा व कार्य निभायेंगे। नहीं साथ ले ही जाना है न। सर्वशक्तिमान साथी होते हुए भी यह संकल्प उत्पन्न होना - उसको क्या कहेंगे? ऐसे व्यर्थ संकल्प समाप्त कर जिस स्थापना के कार्य के निमित्त हो, बापदादा के मददगार हो, उस कार्य में मग्न रहो। अपनी लगन की अग्नि को तीव्र करो। जिस लगन की अग्नि से ही विनाश की अग्नि तीव्र गति का स्वरूप धारण करेगी। अपने रचे हुए अविनाशी ज्ञान यज्ञ, जिसके निमित्त ब्राह्मण बने हुए हो, इस यज्ञ में पहले स्वयं की सर्व कमजोरियों व कमियों की आहुति डालो। तभी सारी पुरानी दुनिया को आहुति पड़ने के बाद समाप्ति होगी। अब दृढ़ संकल्प की तीली लगाओ। तब यह सम्पन्न होगा। अच्छा! 

ऐसी लगन में मग्न रहने वाले, सदा निश्चय के आसन पर स्थित रह कार्य करने वाले, हर परिस्थिति में अचल और अडोल रहने वाले, बापदादा के सदैव समीप और सहयोगी, ऐसे स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।